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कोयल

7. कोयल देखो कोयल काली है पर मीठी है इसकी बोली इसने ही तो कूक कूक कर आमों में मिश्री घोली कोयल कोयल सच बतलाना क्या संदेसा लायी हो बहुत दिनों के बाद आज फिर इस डाली पर आई हो क्या गाती हो किसे बुलाती बतला दो कोयल रानी प्यासी धरती देख मांगती हो क्या मेघों से पानी? कोयल यह मिठास क्या तुमने अपनी माँ से पायी है? माँ ने ही क्या तुमको मीठी बोली यह सिखलायी है? डाल डाल पर उड़ना गाना जिसने तुम्हें सिखाया है सबसे मीठे मीठे बोलो यह भी तुम्हें बताया है बहुत भली हो तुमने माँ की बात सदा ही है मानी इसीलिये तो तुम कहलाती हो सब चिड़ियों की रानी

यह कदम्ब का पेड़

5. यह कदम्ब का पेड़ यह कदंब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे। मैं भी उस पर बैठ कन्हैया बनता धीरे-धीरे। ले देतीं यदि मुझे बांसुरी तुम दो पैसे वाली। किसी तरह नीची हो जाती यह कदंब की डाली। तुम्हें नहीं कुछ कहता पर मैं चुपके-चुपके आता। उस नीची डाली से अम्मा ऊँचे पर चढ़ जाता। वहीं बैठ फिर बड़े मजे से मैं बांसुरी बजाता। अम्मा-अम्मा कह वंशी के स्वर में तुम्हे बुलाता। बहुत बुलाने पर भी माँ जब नहीं उतर कर आता। माँ, तब माँ का हृदय तुम्हारा बहुत विकल हो जाता। तुम आँचल फैला कर अम्मां वहीं पेड़ के नीचे। ईश्वर से कुछ विनती करतीं बैठी आँखें मीचे। तुम्हें ध्यान में लगी देख मैं धीरे-धीरे आता। और तुम्हारे फैले आँचल के नीचे छिप जाता। तुम घबरा कर आँख खोलतीं, पर माँ खुश हो जाती। जब अपने मुन्ना राजा को गोदी में ही पातीं। इसी तरह कुछ खेला करते हम-तुम धीरे-धीरे। यह कदंब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे।

मेरा नया बचपन

2. मेरा नया बचपन बार-बार आती है मुझको मधुर याद बचपन तेरी। गया ले गया तू जीवन की सबसे मस्त खुशी मेरी। चिंता-रहित खेलना-खाना वह फिरना निर्भय स्वच्छंद। कैसे भूला जा सकता है बचपन का अतुलित आनंद? ऊँच-नीच का ज्ञान नहीं था छुआछूत किसने जानी? बनी हुई थी वहाँ झोंपड़ी और चीथड़ों में रानी। किये दूध के कुल्ले मैंने चूस अँगूठा सुधा पिया। किलकारी किल्लोल मचाकर सूना घर आबाद किया। रोना और मचल जाना भी क्या आनंद दिखाते थे। बड़े-बड़े मोती-से आँसू जयमाला पहनाते थे। मैं रोई, माँ काम छोड़कर आईं, मुझको उठा लिया। झाड़-पोंछ कर चूम-चूम कर गीले गालों को सुखा दिया। दादा ने चंदा दिखलाया नेत्र नीर-युत दमक उठे। धुली हुई मुस्कान देख कर सबके चेहरे चमक उठे। वह सुख का साम्राज्य छोड़कर मैं मतवाली बड़ी हुई। लुटी हुई, कुछ ठगी हुई-सी दौड़ द्वार पर खड़ी हुई। लाजभरी आँखें थीं मेरी मन में उमँग रँगीली थी। तान रसीली थी कानों में चंचल छैल छबीली थी। दिल में एक चुभन-सी थी यह दुनिया अलबेली थी। मन में एक पहेली थी मैं सब के बीच अकेली थी। मिला, खोजती थी जिसको हे बचपन! ठगा दिया तूने। अरे! जवानी के फंदे म

हिन्दी कविता सुभद्रा कुमारी चौहान

हिन्दी कविता सुभद्रा कुमारी चौहान 1. झांसी की रानी सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी, बूढ़े भारत में भी आई फिर से नयी जवानी थी, गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी, दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी। चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी। कानपूर के नाना की, मुँहबोली बहन छबीली थी, लक्ष्मीबाई नाम, पिता की वह संतान अकेली थी, नाना के सँग पढ़ती थी वह, नाना के सँग खेली थी, बरछी, ढाल, कृपाण, कटारी उसकी यही सहेली थी। वीर शिवाजी की गाथायें उसको याद ज़बानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी। लक्ष्मी थी या दुर्गा थी वह स्वयं वीरता की अवतार, देख मराठे पुलकित होते उसकी तलवारों के वार, नकली युद्ध-व्यूह की रचना और खेलना खूब शिकार, सैन्य घेरना, दुर्ग तोड़ना ये थे उसके प्रिय खिलवाड़। महाराष्ट्र-कुल-देवी उसकी भी आराध्य भवानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी

अनामिका सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

अनामिका  सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला 1. गीत जैसे हम हैं वैसे ही रहें, लिये हाथ एक दूसरे का अतिशय सुख के सागर में बहें। मुदें पलक, केवल देखें उर में,- सुनें सब कथा परिमल-सुर में, जो चाहें, कहें वे, कहें। वहाँ एक दृष्टि से अशेष प्रणय देख रहा है जग को निर्भय, दोनों उसकी दृढ़ लहरें सहें। 2. प्रेयसी घेर अंग-अंग को लहरी तरंग वह प्रथम तारुण्य की, ज्योतिर्मयि-लता-सी हुई मैं तत्काल घेर निज तरु-तन। खिले नव पुष्प जग प्रथम सुगन्ध के, प्रथम वसन्त में गुच्छ-गुच्छ। दृगों को रँग गयी प्रथम प्रणय-रश्मि- चूर्ण हो विच्छुरित विश्व-ऐश्वर्य को स्फुरित करती रही बहु रंग-भाव भर शिशिर ज्यों पत्र पर कनक-प्रभात के, किरण-सम्पात से। दर्शन-समुत्सुक युवाकुल पतंग ज्यों विचरते मञ्जु-मुख गुञ्ज-मृदु अलि-पुञ्ज मुखर उर मौन वा स्तुति-गीत में हरे। प्रस्रवण झरते आनन्द के चतुर्दिक- भरते अन्तर पुलकराशि से बार-बार चक्राकार कलरव-तरंगों के मध्य में उठी हुई उर्वशी-सी, कम्पित प्रतनु-भार, विस्तृत दिगन्त के पार प्रिय बद्ध-दृष्टि निश्चल अरूप में। हुआ रूप-दर्शन जब कृतविद्य तुम मिले विद्या को दृग